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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 53 
जिन्दगी भी कैसे कैसे करवटें लेती है ये कौन जानता है ! जिन्दगी कोई लीक पर चलने वाली गाड़ी तो है नहीं ! यह तो उस नन्हे बालक की तरह होती है जो अपने माता पिता की उंगली पकड़कर मस्त चाल से चल रहा होता है और अचानक से वह अपनी उंगली छुड़ाकर किसी भी ओर भाग खड़ा होता है । घबराकर माता पिता उसके पीछे पीछे दौड़ने लगते हैं । बच्चा उन्हें चिढ़ाते हुए आगे आगे भागता रहता है और माता पिता उसे रोकने का प्रयास करते हुए उसके पीछे पीछे भागते हैं मगर वह उनके हाथ नहीं आता है । इसी प्रकार जिन्दगी भी मनुष्य के आगे आगे भागती रहती है और मनुष्य उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे पीछे दौड़ता रह जाता है । कुछ लोग जीवन को समझ लेते हैं वे सही राह पकड़ लेते हैं और जीवन को अपने वश में कर लेते हैं । बाकी लोग जीवन भर जीवन के पीछे दौड़ते रहते हैं । इसी भागदौड़ में यह जीवन बीत जाता है और बाद में पछताना पड़ता है । यही जीवन है जो चलता रहता है । 

अशोक सुन्दरी नहुष को अपना पति पाकर बहुत प्रसन्न थी । नहुष जैसा पराक्रमी , वीर , निडर , सुन्दर , सुगठित , चक्रवर्ती सम्राट प्राप्त कर किस स्त्री को प्रसन्नता नहीं होगी ? अशोक सुन्दरी भी उन सौभाग्यशाली स्त्रियों में से एक थी जिन्हें ईश्वर ने धन दौलत , ऐश्वर्य, राजपाट, प्रतिष्ठा, पति, पुत्र सब कुछ दिया था । सम्राट नहुष भी अशोक सुन्दरी को हृदय से प्रेम करते थे । अशोक सुन्दरी भी अन्य स्त्रियों की भांति पति प्रेम पाकर स्वयं को धन्य समझती थी । अभी तक उसके जीवन में सुख ही सुख थे । दुखों से उसका कभी नाता नहीं रहा था । ना तो कैलाश में और ना हस्तिनापुर में ।

एक बार अचानक दानवों ने देवताओं पर अचानक आक्रमण कर दिया । देवताओं में खलबली मच गई । देवता दानवों के भयंकर आक्रमण से दहल गए थे । उनका पलड़ा हलका पड़ने लगा था । दानव देवताओं पर भारी पड़ रहे थे । तब देवताओं ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की कि इस अवस्था में वे उनकी सहायता करें । तब ब्रह्मा जी ने देवताओं को कहा कि इस अवस्था में तुम्हें नहुष को अपनी सहायता के लिए बुलाना चाहिए । देवताओं ने सम्राट नहुष की सहायता के लिए अपना एक दूत हस्तिनापुर प्रेषित कर दिया । 

जब देवदूत ब्रह्मा जी का संदेशा लेकर आया , तब अशोक सुन्दरी कितना भयभीत हुई थी उस संदेश से ? युद्ध में महाराज के भाग लेने से वह चिंतितहो गईथी । "युद्ध तो युद्ध है, कभी भी कुछ भी हो सकता है । यदि नहुष को कुछ हो गया तो वह क्या करेगी" ? उसने महाराज से पूछा । प्रश्न सामयिक था किन्तु नहुष को अपने पराक्रम पर अटूट विश्वास था इसलिए वह कहने लगे 
"चिंता मत करो प्रिये, मुझे कुछ नहीं होगा । तुम्हारा प्रेम और भोलेनाथ का आशीर्वाद मुझे कुछ नहीं होने देगा" । नहुष का आत्मविश्वास देखकर कितना गर्व हुआ था अशोक सुन्दरी को ! उसे महाराज के पराक्रम पर पूर्ण विश्वास था फिर भी नारी हृदय की कोमलता ने उसे भयभीत तो कर ही दिया था । मन में शंकाओं के उमड़ते बादलों के बीच ही युद्ध के लिए विदा किया था उसने नहुष को । 

इसके पश्चात स्वर्ग लोक से आने वाले समाचारों पर ही अब उसका ध्यान लगा रहता था । अशोक सुन्दरी ने जप तप करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी थी जैसे कि उसके जप तप की शक्ति नहुष में युद्ध कीशशक्ति का संचार करेगी । बहुत दिनों तक चला था वह युद्ध । बालक याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति और कृति कितना याद करते थे अपने पिता श्री को ! वे अपनी माता अशोक सुन्दरी से पूछते थे कि तात् कहां गये हैं ? अशोक सुन्दरी भला क्या बताती ? 
एक दिन उसके मुंह से निकल गया "तुम्हारे तात् युद्ध करने गये हैं" तो बड़ा पुत्र याति कहने लगा " युद्ध क्यों करते हैं लोग ? युद्ध में कितना नरसंहार होता है ? कितना रक्त बहता है ? मनुष्यों के अतिरिक्त पशु भी तो हताहत होते हैं युद्ध में ! इतनी हिंसा किसलिए माते ? क्या युद्ध से कोई समाधान निकल जाता है ? क्या बिना युद्ध किए कोई समाधान नहीं हो सकता है" ? कितने प्रश्न करता है वह ! बिल्कुल ॠषियों की तरह । कभी कभी तो ज्ञान की इतनी बातें करता था याति जैसे कि वह कोई जाना माना तत्वदर्शी हो । उसका खेलने कूदने में मन नहीं लगता था । वह अक्सर कहीं एकान्त में बैठकर चिंतन मनन करता रहता था । उसकी ऐसी बातों से अशोक सुंदरी भयभीत हो जाती थी । कहीं याति सन्यासी तो नहीं बन जायेगा ? यह भय अशोक सुन्दरी का पीछा नहीं छोड़ता था । 

और ययाति को देखो ! उसे तो युद्ध के नाम से ही उन्मत्तता चढ़ जाती है । वह कहता है "तात् मुझे भी अपने साथ क्यों नहीं ले गये , माते ? मैं भी दुष्ट दानवों के विरुद्ध युद्ध करता । उन्हें उनकी धृष्टता के लिए दण्ड देता" । उसकी देखा देखी सयाति, वियाति और अयाति भी युद्ध में जाने की रट लगा देते । कृति तो अभी बहुत छोटा था । अपने अग्रजों की बात सुनकर कहता "मैं भी कलूंगा युध । मैं छबको माल दूंगा" । उसकी तोतली भाषा में बातें सुनकर अशोक सुन्दरी निहाल हो जाती और उसे अपने सीने से लगाकर उसे जोर से अपनी बांहों में कस लेती । बेचारा नन्हा बालक ममता के इस दबाव को सहन नहीं कर पाता और जोर से चीख पड़ता "छोलो माते, बहुत जोल से दुखता है" । तब अशोक सुन्दरी अपनी पकड़ ढीली करती । उसके लिए उसकी छातियों में अभी भी ममता का दूध बहता है । कभी कभी तो वह उसे जबरन दूध पिलाने बैठ जाती परन्तु बच्चों को कोई जबरन दूध पिला सकता है क्या ?

और आखिर में वह दिन आ ही गया जिसका अशोक सुन्दरी इंतजार कर रही थी । देवताओं की ओर से एक दूत आया था जिसने यह शुभ समाचार सुनाया था कि "युद्ध में देवताओं की विजय हो गई है । महाराज नहुष के अप्रतिम पराक्रम से देवताओं की विजय संभव हो सकी थी । महाराज नहुष को देवराज इन्द्र ने अतिथि सत्कार करने के लिए कुछ दिन रुकने का निवेदन किया है इसलिए महाराज कुछ दिन देवलोक में रुककर फिर हस्तिनापुर पहुंचेंगे" । यह समाचार सुनकर पूरे हस्तिनापुर में उत्सव जैसा वातावरण हो गया । महाराज की जय के जयकारे गली गली में गूंजने लगे । 
यह समाचार सुनकर अशोक सुन्दरी की प्रसन्नता का कोई पारावार नहीं था । उसने हर्षातिरेक में नन्हे कृति को हृदय से लगाकर कस लिया । यह देखकर वियाति मां से शिकायत करने लगा "जब देखो तब आप नन्हे को ही हृदय से लगाती हो, मुझे तो कभी भी नहीं लगाती" । उसने मुंह फुलाकर दूसरी ओर कर लिया । अशोक सुन्दरी ने अपनी दूसरी बांह वियाती के गले में डाल दी और उसे अपने अंक में भरते हुए उसे प्रेम करने लगी । उसके ललाट को चूमने लगी । तब वियाति ने भी अपनी दोनों बाहें अशोक सुन्दरी के कण्ठ में डाल दी और अयाति को चिढाकर बोला "माते केवल मुझे और नन्हे को ही प्रेम करती हैं , आपको नहीं" । वियाति गर्व से फूला नहीं समा रहा था । बचपन में मां का प्रेम ही सबसे बड़ी पूंजी, धन दौलत , ऐश्वर्य सब कुछ होता है । बाद में लालच का परदा पड़ जाने से वह पूंजी दिखाई देनी बंद हो जाती है । 

अशोक सुन्दरी सम्राट की अगवानी की तैयारी करने लगीं । उन्होंने अमात्य, समाहर्ता, सेनापति और राजपुरोहित को बुलाकर महाराज के आने का शुभ समाचार सुनाया और उनके स्वागत की तैयारियां करने को कहा । महाराज दानवों को परास्त कर, देवताओं की सहायता कर और अपने पराक्रम का लोहा मनवाकर आ रहे हैं तो उसी परिमाण में उनका स्वागत भी होना चाहिए । इसके बाद अशोक सुन्दरी ने अंत:पुर की प्रमुख प्रतिहारी को बुलाकर पूरे राजप्रासाद को सजाने का आदेश दे दिया । 

संपूर्ण हस्तिनापुर को एक वधू की तरह सजाया जाने लगा । हस्तिनापुर में प्रवेश के लिए कुल 64 द्वार थे । उन सभी द्वारों पर बंदनवार बंधवाई गईं और फूलों की सजावट की गई । महाराज के प्रवेश द्वार से लेकर राजप्रासाद तक पूरे मार्ग पर स्थान स्थान पर तोरण द्वार बनाये गये । पूरे मार्ग में फूलों और रंगों से सुन्दर सुन्दर रंगोली सजाई गई । पूरे मार्ग में सुन्दर सुन्दर कन्याऐं सोलह श्रंगार करके हाथों में गुलाब की पंखुड़ियां लिये हुए खड़ी की गईं जिससे महाराज के वहां से गुजरने पर वे उन पर पुष्प वर्षा कर सकें । सभी सैनिकों को नई पोशाक पहन कर अस्त्र शस्त्र सहित पंक्तिबद्ध खड़ा किया गया जिससे वे महाराज का स्वागत कर सकें । ब्राहणों और आचार्यों को मंत्रोच्चार और गंगाजल छिड़कने के लिए पूरे रास्ते पर खड़ा किया गया । पूरा राजप्रासाद घी के दीपकों से जगमगाने लगा था । ऐसा जलसा ना पहले कभी हुआ था और भविष्य का तो किसी को क्या पता होता है ? 

महाराज नहुष हस्तिनापुर पधारे । देवराज इन्द्र ने उनके सम्मान में उनके साथ अग्निदेव को भी प्रेषित किया था । महाराज नहुष ने अपनी बहुमूल्य सेवाऐं देवताओं को प्रदान की थीं तो उसके लिए इतना मान सम्मान तो बनता ही है । हस्तिनापुर के अमात्य, सेनापति, समाहर्ता, राजपुरोहित और अन्य पदाधिकारियों ने महाराज का बहुत भावभीना स्वागत किया था । उनके स्वागत के लिए पूरा हस्तिनापुर उमड़ आया था । आबाल वृद्ध, नर,  नारी , अकिंचन, लब्धप्रतिष्ठ सब लोग चौराहों पर महाराज का अभिनंदन कर रहे थे । नृत्य कर रहे थे और प्रसन्नता से झूम रहे थे । सुरा और सुन्दरी दोनों का मेला लगा हुआ था । इतने भव्य स्वागत से महाराज नहुष अभिभूत हो गये और उन्होंने प्रजाजनों का हार्दिक अभिनंदन किया । राजपुरोहित उन पर गंगाजल और पंचनद का जल छिड़क कर मंत्रोच्चार कर रहे थे । सुन्दरियां पुष्प वर्षा कर रही थीं । दुन्दुभि, तुरही , ढोल, नगाड़े बजाये जा रहे थे और चंग की थाप पर कुशल नर्तक और नर्तकियां थिरक रहे थे । 

राजप्रासाद में महारानी अशोक सुन्दरी ने तिलक लगाकर महाराज का स्वागत किया । उनके छहों पुत्रों ने बारी बारी से महाराज के चरण स्पर्श किये । याति, ययाति, सयाति, अयाति का मस्तक चूम कर उनके सिर पर अपना हाथ फिराकर महारज ने उन्हें आशीर्वाद दिया और वियाति तथा कृति को गोद में लेकर दुलार किया । प्रतिहारी ने भी महाराज का अभिनंदन किया । महारानी ने महाराज का मुंह मीठा करवा कर उन्हें विजय श्री की बधाई दी । महाराज ने महारानी के मस्तक पर चुंबन अंकित करके अपने प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन किया और महारानी को अंक में भर लिया । महारानी इससे लजा गईं और उन्होंने अपना मुंह अपने आंचल में छुपा लिया । 

श्री हरि 
20.7.23 

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